जापान के आधुनिक संतों की दुर्दशा

आधुनिक संसार में कटा हुआ रह पाना बहुत मुश्किल हो सकता है. ई-मेल, पोस्ट्स, ट्वीट्स, लाइक्स, कमेंट और तस्वीरों की अंतहीन कड़ी हमें लगातार आधुनिक जीवन से जोड़े रहती है.

लेकिन जापान में पांच लाख लोग आधुनिक संतों की तरह जीवन यापन करते हैं. उन्हें हीकीकोमोरी कहा जाता है - ऐसे लोग जो सामाजिक सम्पर्कों से खुद को अलग कर लेते हैं और अक्सर वर्षों तक अपना घर नहीं छोड़ते.

एक सरकारी सर्वेक्षण में ऐसे लोगों की संख्या लगभग 541,000 (कुल जनसंख्या का 1.57 %) पाई गई. लेकिन कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह संख्या और अधिक है क्योंकि ऐसे लोग मदद लेने में वर्षों लगा देते हैं.

शुरुआत में ऐसा लगा कि यह स्थिति जापानी समाज की ही विशेषता है लेकिन हाल के वर्षों में दुनियाभर से ऐसे मामले सामने आए हैं. जापान के पड़ोसी देश दक्षिण कोरिया में 2005 में हुए एक विश्लेषण में सामाजिक तौर से अलग-थलग रह रहे लोगों की संख्या 33 हजार (कुल आबादी का 0.3 %) पाया गया जबकि हांगकांग में 2014 में हुए एक सर्वेक्षण में यह संख्या 1.9 प्रतिशत पाई गई.

ये मामले केवल एशिया में ही नहीं बल्कि अमरीका, स्पेन, इटली, फ्रांस और अन्य जगहों से भी सामने आ रहे हैं.

सामाजिक एकाकीपन को लेकर दुनियाभर में चिंता बढ़ रही है. इसका कारण जागरूकता का बढ़ना है या समस्या का बढ़ना है, यह स्पष्ट नहीं है.

पिछले वर्ष जनवरी में ब्रिटेन में अपना पहला एकाकीपन से निपटने वाला मंत्री नियुक्त किया और हाल में ऑफिस ऑफ नेशनल स्टेटिस्टिक्स यानी राष्ट्रीय सांख्यकीय कार्यालय के आंकड़ों में 16 से 24 वर्ष की उम्र के लगभग 10 प्रतिशत लोगों ने "सदैव या प्रायः" एकाकीपन महसूस करने की बात की.

हीकीकोमोरी शोध में एक समान लेखन विवादास्पद घटक आधुनिक प्रौद्योगिकी यानी टेक्नोलॉजी का एकाकी करने वाला प्रभाव शामिल है. इनका आपस में संबंध है कि यह बात अभी तय नहीं है लेकिन यह चिन्ता अवश्य है कि हमारे लगातार अलग-थलग रहने वाले समाज ने जापान की यह खोई हुई पीढ़ी दरअसल एकाकी जीवन बिता रही है.

हीकीकोमोरी शब्द का प्रयोग जापान के मनोवैज्ञानिक तमाकी साइतो ने 1998 में अपनी पुस्तक, सोशल विद्ड्रॉल-एडोलेसेंस विद्आउट एंड में सबसे पहले किया था.

इसका प्रयोग अक्सर इस दशा के भुक्त भोगियों और इस दशा के लिए किया जाता है. आज इस दशा के समान लक्षणों में अकेले रहना, समाज से दूरी बनाना और मनोवैज्ञानिक विषाद होना या इन तीनों का ही मिला-जुला असर शामिल है जो छह महीने या उससे अधिक समय तक चले.

इस दशा को आरम्भ में "संस्कृति से जोड़कर" देखा गया. फुकुओका के क्यूशु विश्वविद्यालय के मनोरोग विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर ताकाहीरो कातो, जो हीकीकोमोरी का अध्ययन और उपचार दोनों करते हैं, का मानना है कि जापानी समाज इस बीमारी को पनपने देने के लिहाज से कमजोर है.

कातो कहते हैं, "जापान में एक बहुत प्रसिद्ध कहावत है, 'कील बाहर निकली हो तो उसे ठोंक दिया जाएगा'." छह फीट दो इंच की लम्बाई वाले डॉक्टर कातो लगभग मजाक में ही यह भी जोड़ देते हैं कि इसीलिए वे अक्सर झुककर चलते हैं जिससे उन्हें घमंडी न माना जाए.

कातो बताते हैं कि कठोर सामाजिक नियमों, अभिभावकों की ऊंची अपेक्षाएं और शर्मसार करने की एक संस्कृति जापान के समाज को अपूर्णता का अहसास कराने तथा खुद को विनम्र बनाने की इच्छा पैदा करने के लिहाज से एक उपयुक्त माहौल देती है.

29 साल के टोमोकी ने मुझे बताया कि 2015 में अपनी नौकरी छोड़ने के बाद वे दोबारा काम करने के लिए दृढ़ निश्चय कर चुके थे और नियमित तौर पर रोजगार केन्द्रों का चक्कर लगाते थे.

उन्होंने लगभग प्रत्येक दिन एक धार्मिक समूह में जाना भी शुरू कर दिया लेकिन उस समूह के नेता ने उनके रवैये और दोबारा काम शुरू न कर पाने के कारण सबके सामने उनकी आलोचना की.

जब उन्होंने उस समूह के क्रियाकलापों में आना बंद कर दिया तो नेता ने उन्हें एक सप्ताह में कई बार बुलाया. परिवार से पड़ रहे दबाव के साथ-साथ इस दबाव ने उन्हें अपने आप को समाज से पूरी तरह अलग-थलग करने के लिए मजबूर कर दिया. (सभी हीकीकोमोरी की पहचान छुपाने के लिए उनके नाम बदल दिए गए हैं.)

टोमोकी ने बताया, "इसके लिए मैंने स्वयं को जिम्मेदार ठहराया. मैं किसी से मिलना नहीं चाहता था, कहीं बाहर जाना नहीं चाहता था."

स्कूल एक विचारधारा को वरीयता देता है, सबकी राय एक जैसी होनी चाहिए. यदि कोई कुछ और कहता है तो वह समूह से बाहर हो जाता है - इचिका.

फुकुओका शहर के हीकीकोमोरी मदद केन्द्र में योकायोका रूम यानी स्थानीय भाषा में आराम कक्ष - एक के बाद एकसमूह का प्रत्येक सदस्य दूसरे जैसा बनने के दबाव के बारे में बताता है. यहां आये 34 वर्षीय हारू कहते हैं, "स्कूल एक विचारधारा को वरीयता देता है, सबकी राय एक जैसी होनी चाहिए. यदि कोई कुछ और कहता है तो वह समूह से बाहर हो जाता है."

जापानी समाज की उम्मीदों पर खरा उतरना और भी कठिन हो गया है. कातो का कहना है कि आर्थिक ठहराव और वैश्वीकरण के कारण जापान के कलेक्टिविस्ट यानी सामूहिक और हाइरार्किकल यानी वर्गीकृत परम्परा का अधिक व्यक्तिपरक यानी इंडिविजुअलस्टिक और प्रतिस्पर्धात्मक यानी कॉम्पटेटिव पश्चिमी विचारों वाले मत से टकराव हो रहा है.

कातो कहते हैं कि जहां एक ओर घर न छोड़कर मां-बाप पर ही निर्भर करने वाले बच्चों को ब्रिटिश अभिभावक शायद सहन न करें वहीं दूसरी ओर जापान के अभिभावक हर हाल में अपने बच्चों को मदद देने के लिए अपने आप को बाध्य पाते हैं और शर्मिन्दगी का भार उन्हें दूसरों से मदद लेने से भी रोकता है.

लेकिन जापान से बाहर भी इस तरह के मामलों में हो रही लगातार बढ़ोतरी इस दशा के एक ही संस्कृति से जुड़े होने पर प्रश्न चिह्न खड़ा करता है.ट

वर्ष 2015 के एक अध्ययन में कातो और अमरीका, दक्षिण कोरिया और भारत के उनके सहयोगी ने पाया कि चारों ही देशों में एक जैसे लक्षण हैं.

अमरीका की ऑरेगॉन हेल्थ एंड साइंस यूनिवर्सिटी में मनोरोग के एसोसिएट प्रोफेसर और अध्ययन के प्रमुख लेखक एलन टियो बताते हैं कि इस दशा के लक्षणों वाले अमरीकी उनसे नियमित रूप से सम्पर्क साधते हैं.

उनका कहना है, "लोग अक्सर ये मान लेते हैं कि यह जापान में सबसे ज्यादा आम है. यदि आप औपचारिक रूप से इसकी गणना करें तो कुछ चकित करने वाली जानकारी मिल सकती है."

स्पेन की मनोचिकित्सक एंजलिस मैलागॉन-एमॉर का बार्सिलोना में एक घरेलू चिकित्सा कार्यक्रम में अचानक इस समस्या से सामना हो गया. मैलागॉन-एमॉर और उनके सहयोगियों की मुलाकात अक्सर समाज से अलग-थलग हुए रोगियों से हो जाती थी.

Comments